Thursday, December 22, 2016

जो शजर सुख गया...


जो शजर सुख गया है वो हरा कैसे हो
में पयंबर तो नही मेरा कहा कैसे हो ॥

दील के हर जर्रे पे नक्श महोब्बत उसकी
नुर आखोंका है आखों से जुदा कैसे हो ॥

जिस को जाना ही नही उसको खुदा क्युं माने
और जिसे जान चुके हो वो खुदा कैसे हो ॥

उम्र सारी तो अंधेरे मे नहि कट सकती 
हम अगर दील ना जलाए तो जिया कैसे हो ॥

जिस से दो रोज भी खुलकर ना मुलाकात हुइ
मुद्दते बाद मिले भी तो गिला कैसे हो ॥

दुर से देखकर मैंने उसे पहचान लिया
उसने इतना भी नही मुजसे कहा कैसे हो ॥

वोह भी एक दौर था जब मैने तुझे चाहा था
दील का दरवाजा हर वक्त खुला कैसे हो ॥

जब कोइ दाद-ए-वफा चाहनेवाला ना रहा
कौन इन्साफ करे हश्र बापा कैसे हो ॥

आएने मे भी नजर आती है सुरत तेरी
कोइ मकसुद-ए-नझर तेरे शीवा कैसे हो ॥

कीन निगाहो से उसे देख रहा हुं "शेहजाद"
मुझ्को मालुम नहि उसे पता कैसे हो ॥